ध्यान-कक्ष से हो रहा है – समभाव-समदृष्टि की युक्ति का प्रसार

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FARIDABAD: सबकी जानकारी हेतु आजकल फरीदाबाद का प्रमुख पर्यटक स्थल ध्यान-कक्ष काफी चर्चा में है। प्रतिदिन यहाँ सैकड़ों की सं2या में स्कूल/कालेज के बच्चे, सुसाइटियों के सदस्य व आस-पास के ग्रामीण सजन, ग्रुपों में आते हैं और एकता के प्रतीक इस ध्यान-कक्ष की शोभा देखने के साथ-साथ, यहाँ से प्रसारित हो रही, मानवीय मूल्यों की विचारधारा को सुन-समझ कर दंग रह जाते हैं। इसी संदर्भ में आज इस ध्यान कक्ष की शोभा देखने आए हुए थे प्राइम प4िलक स्कूल के बच्चे व बल्लभगढ की एक सुसाइटी के सदस्य।

ध्यान-कक्ष से पूर्व निर्मित मानवता के प्रतीक सात द्वारों में जानकारी देने के पश्चात्‌ उन्हें समझाया गया कि आज युग परिवर्त्तन की कगार पर खड़ा है यानि पाप और अधर्म का युग कलियुग जा रहा है व सत्य और धर्म का प्रतीक सतयुग आ रहा है। ऐसे में सजनों के भावों-स्वभावों में व्यवहारिक स्तर पर क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता समय की सर्वप्रथम माँग है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु ध्यान कक्ष से यत्न कर प्रत्येक सजन को समभाव-समदृष्टि अनुसार, आपस में सज्जनतापूर्ण मैत्री भाव करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

किसी के पूछने पर कि समभाव-समदृष्टि 1या है, बताया गया कि समभाव से तात्पर्य चित्त की समानदशा यानि समरूपता से है तथा समदृष्टि सबको एक समान दृष्टि/नजर से देखने की वृत्ति है। कहा गया कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समभाव-समदृष्टि ये दोनों ही श4द, आज के युग में प्रचलित भक्ति के विभिन्न प्रकारों में सबसे श्रेष्ठ एवं सुगम युक्ति के द्योतक हैं तथा ईश्वर की मूल प्रकृति को प्रदर्शित करते हैं। इनसे न केवल ईश्वरीय गुण प्रकट होते हैं बल्कि मानवीय गुणों को धारण करने की विधिवत्‌ क्षमता भी विकसित होती है। इस प्रकार यह जीवन लक्ष्य अर्थात्‌ा मुक्ति को प्राप्त करने की सबसे उत्त्‌ाम व एकमात्र युक्ति है। इसके अंतर्गत ईश्वर को जानने के लिए नाम/मन्त्रोच्चार करने, भजन-कीर्तन करने, आत्म-यातना देने, जंगलों में जाने, स्वयं को पुत्र, दास, सेवक, या किसी अन्य बन्धन में बाँधने, भगवा या अन्य विशिष्ट वस्त्र पहनने, जटाएँ बढ़ाने, स्वयं पर धूनी या राख मलने, या विभिन्न प्रकारों की प्रार्थनाओं व कर्म-काण्डों को करने की जरूरत नहीं रहती अपितु मात्र सन्तोष-धैर्य, सच्चाई-धर्म धारण कर यानि मन, वचन व कर्म को स्वतन्त्र व पवित्र अवस्था में रख ईश्वर की सर्वव्यापकता के प्रति दृढ़ विश्वास रखने की आवश्यकता होती है। इसी विश्वास पर अपने भाव व दृष्टि को मजबूत रखने वाला ‘ईश्वर है अपना आप‘ के विचार पर खड़ा हो पाता है और एकता, एक अवस्था में आ पारिवारिक, सामाजिक व वैश्विक शांति के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। इस आधार पर समभाव-समदृष्टि अपनाने पर ही सतयुग की परिकल्पना का, आदर्श समाज के रूप में साकार दर्शन किया जा सकता है।

यही नहीं उन्हें यह भी समझाया गया कि यदि समभाव-समदृष्टि अपनाना चाहते हो तो जीवन की हर परिस्थिति में राग-द्वेष, ईर्ष्या, वैमनस्य आदि विकारों से रहित होकर मन, वचन व कर्म द्वारा सत्यानुरूप आचरण करने की आवश्यकता को समझो यानि विकारों से तत्क्षण प्रभावित न होकर अपना संतुलन सम पर बनाए रखो। जानो यह तभी हो सकता है जब आपका ज्ञान, भाव और क्रिया तीनों समिमलित रूप से सम अवस्था में बने रहने हेतु यत्नशील हों। ऐसा होने पर ही आप निष्पक्षता से सब के प्रति सहानुभूति रखते हुए एकता व सहृदयता अपना सकोगे और एक रस रहते हुए, सबके प्रति एक सा व्यवहार कर सकोगे। तब आपकी मनोवृत्ति अर्थात‌ भाव एक ही धर्म या स्वभाव पर ठहरा रहेगा और आप अपने असलियत स्वरूप में स्थित हो अपने इस मानव जीवन को सार्थक कर लोगे।

अंत में उपस्थित सदस्यों ने कहा कि हमें यहाँ आकर बहुत अच्छा लगा। सुनिश्चित रूप से मानव जाति को सच्चाई-धर्म की सही राह दिखाने वाला यह स्कूल अपने आप में अनूठा है व मजे की बात तो यह है कि इसमें आने हेतु आयु-सीमा व फ़ीस का कोई प्रश्न नहीं है। इस पर ट्रस्ट के निष्काम सेवकों ने बताया कि जो भी सजन सीस अर्पण कर यानि अपने हर अज्ञान-ज्ञान-विज्ञान का परित्याग कर, केवल ईश्वर के आदेश को एवं उसके संविधान को जो कि समभाव-समदृष्टि का अनुशीलन है, अपने जीवन में उतारने हेतु तत्पर है, वह इस स्कूल में प्रवेश पा सकता है।

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