राम नवमी यज्ञ महोत्सव (दूसरा दिन) अंत:करण की निर्मलता का साधन – आत्मज्ञान

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FARIDABAD(GUNJAN JAISWAL) सतयुग दर्शन वसुन्धरा में आयोजित राम नवमी यज्ञ महोत्सव के द्वितीय दिवस सजनों को जाग्रत करते हुए सतयुग दर्शन ट्रस्ट के मार्गदर्शक श्री सजन जी ने कहा कि अंत:करण यानि हृदय आकाश की शुचिता के लिए आत्मज्ञान/अध्यात्मज्ञान एकमात्र सर्वोत्तम साधन है। आत्मज्ञान से तात्पर्य अपने को पूर्ण रूप से जानने/पहचाने से है। अपने आप से यहाँ आशय सजनों आत्म (स्व) की पहचान वस्तुत: आत्मा और परमात्मा की पहचान से है। इसे आत्मा का स्वरूप ज्ञान या ब्रह्म का ज्ञान यानि आध्यात्मिक ज्ञान भी कहते हैं। यह आत्म-साक्षात्कार व ब्रह्म-साक्षात्कार की स्थिति है।

उन्होने आगे कहा कि जानो यह अंतर्ज्ञान यानि अन्त:करण में अपने आप उपजने वाला (स्वयं स्फुरित) ईश्वरीय ज्ञान है। इसी के द्वारा पवित्र अंत:करण यानि निश्छल व निष्काम हृदय में सत्य का बोध होता है और जीव आत्मदर्शन का परमसुख प्राप्त कर आत्मतुष्ट हो जाता है यानि परम संतोष प्राप्त कर ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है। सबकी जानकारी हेतु यह आत्मज्ञान सामान्य ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। यह बुद्धि की प्रखरता का नहीं अपितु माया के स्पर्श से दूर आत्मा की निष्कलुषता यानि पावनता का प्रतिबिम्ब है। यह आत्मा की पुकार है जिसको सुनकर व्यक्ति सन्मार्ग पर चलने के लिए स्वत: प्रेरित होता है। अंतर्ज्ञान को अन्तर्दृष्टि या ज्ञानचक्षु भी कहते हैं। इसके खुलने पर जीव न केवल हृदय वेद विदित ज्ञान व अपने अंतर्मन की बात जान सकता है अपितु दूसरे के मन की, यहाँ तक कि भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों की बात भी जान सकता है।

इस प्रकार जो इस आत्मज्ञान द्वारा एक सर्वव्याप्त आत्मा को जान लेता है वह सबको जान लेता है यानि जिसने स्वयं को पहचान लिया वह ब्रह्म (ईश्वर) को पहचान लेता है। याद रखो कि ब्रह्म ही पूर्ण है अत: उसका ज्ञान ही पूर्ण ज्ञान है। जिस व्यक्ति को इस आत्मतत्त्व का पूर्णत: ज्ञान हो जाता है वह शीघ्र ही उच्च शिखर (सिद्धि) पर चढ़ जाता है। इंद्रियों के विषय फिर उसे विषतुल्य लगने लगते हैं यानि बाह्य पदार्थों के प्रति उसमें अरूचि उत्पन्न हो जाती है और संसार मिथ्या प्रतीत होने लगता है। इस तरह मन की चंचलता के कारण उत्पन्न आशा-तृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, इच्छा, शोक तथा भय से सहज ही मुक्ति मिल जाती है और इनके स्थान पर जीवन में संतोष, क्षमा, धैर्य, विनय, शील, सरलता, स्पष्टता, समता आदि गुण प्रकट हो जाते हैं। फलत: जीवन निखर जाता है और शरीर की भी परवाह नहीं रहती। व्यक्ति शोक, लोभ, मायाबंधन से सर्वथा छूटकर सच्चिदानंद स्वरूप हो जाता है और अफुर हो परमपद को प्राप्त कर मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है।

ऐसा होने पर सजनों फिर देवालयों व तीर्थ-स्थानों में भटकने की व व्रत-नेम आदि करने की आवश्यकता नहीं रहती अपितु सब कार्यव्यवहार करते हुए भी मन परमेश्वर में लीन रहता है और अन्दर की पवित्रता आचरण द्वारा स्वत: प्रस्फुटित होती है। यही कारण है कि ऐसा इंसान फिर बाल्यावस्था के कर्मकांड व आडम्बर युक्त भक्ति-भावों में फँसने की भूल नहीं करता अपितु इसके स्थान पर युवावस्था का सुदृढ़ व स्थिर भक्ति-भाव अपना कर, नौजवान युवावस्था को धारण कर लेता है और उच्च बुद्धि, उच्च ख़्याल हो स्वावलम्बी हो जाता है।

अन्य शब्दों में जब मनुष्य राग और भोग में रूचिशील जीवन जीने के स्थान पर, वैराग्य और त्याग में प्रवृत्त होकर, आत्मा और परमात्मा के स्वरूप और सम्बन्ध का विचार कर, लौकिक और भौतिक साधनों से भिन्न, आध्यात्मिक उन्नति के साधनों के सम्बन्ध में अपने मन में विवेचन करता है तो आत्मा और अनात्मा के विवेक ज्ञान द्वारा आध्यासिक/मिथ्याज्ञान से उत्पन्न भ्रमपूर्ण और कल्पित ज्ञान से मुक्ति पा, जीवात्मा और परमात्मा के विषय का सम्यक्‌ ज्ञान प्राप्त कर, ब्रह्मसाक्षात्कार कर सकता है। इस तरह इस ज्ञान को आत्मसात्‌ करने वाला जीव जीवनमुक्त हो, ब्रह्मभूत हो जाता है। इस उपलब्धि के तहत्‌ आप भी आत्मज्ञान प्राप्त करो और जीवनमुक्त हो परमशांति को पाओ।

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