(Front News Today) आगामी बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर रूद्र प्रकाश की खास रिपोर्ट! बिहार विधानसभा के चुनाव इस साल के अंत तक संभावित हैं। इसके लिए सभी पार्टियों में हलचल तेज हो गई है। कोरोना महामारी की वजह से इस बार चुनाव प्रचार का तरीका भी बदल गया है। पार्टियां वर्चुअल रैली के माध्यम से चुनाव प्रचार कर रही हैं। भाजपा की ओर से खुद अमित शाह ने वर्चुअल रैली की शुरुआत कर दी है और जोर से चुनावी बिगुल बजा दिया है। उधर नीतीश कुमार भी वर्चुअल रैली कर रहे हैं। वहीं राष्ट्रीय जनता दल सहित अन्य दल चुनावी उम्मीदवार तैयार करने में लगे हैं।

जहां तक मुद्दे की बात है तो कौन से मुद्दे होंगे जिनका असर चुनाव पर होगा ? चुनावी विश्लेषकों सहित अन्य लोगों का मानना है कि दो मुद्दे बिहार के लोगों को बहुत परेशान करते हैं और वह हमेशा इस से जूझते रहते हैं। पहला बाढ और दूसरा रोजगार! बिहार में हर साल बाढ़ आती है बिहार की कोसी, गंडक आदि नदियां लाखों जिंदगियां तबाह करती हैं और लोग बेघर हो जाते हैं। इस बाढ़ में अरबों की संपत्तियों का नुकसान होता है। इस बार बिहार के तकरीबन 9 से ज्यादा जिले बाढ़ से बुरी तरह से जूझ रहे हैं। अभी की स्थिति देखते हुए यह मुद्दा हवा हो गए हैं, ऐसा कहा जा सकता है। बिहार सरकार की बाढ़ की बदइंतजामी जगजाहिर हो गया है। बड़ा मुद्दा होने के बावजूद भी पार्टियां इस पर चर्चा नहीं करती। सरकार द्वारा राहत फंड जारी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है और सरकार इसका अंतिम समाधान मानकर चुप हो जाती है। साल दर साल इसी तरह चलता रहा है जो अभी भी जारी है।

बिहार में रोजगार की समस्या भी बहुत विकराल है। हर साल लाखों मजदूर रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं। इधर कोरोनावायरस ने नई मुसीबतों को खड़ा कर दिया है। कोरोना ने लोगों की आर्थिक स्थिति को भी कमजोर कर दिया है। बिहार में रोजगार की उपयुक्त व्यवस्था न होने के कारण मजदूर वर्ग असमंजस की स्थिति में है। हर बार चुनाव में यह मुद्दा भी गौण हो जाता है। न तो यहां कारखाना लगाने की बातें होती हैं और तो और यहां चालू कार खाने भी बंद हो जाते हैं। इस पर कोई चर्चा भी नहीं करना चाहता है। उपर्युक्त सारे मुद्दे हवा हवाई हो जाते हैं।रह जाती हैं सिर्फ जातिगत राजनीति की बातें। बिहार के चुनाव में जातिगत मुद्दे इतने हावी हैं कि यहां उम्मीदवारों का चुनाव भी जाति को देखते हुए ही किया जाता है। ऐसे ही उम्मीदवारों को टिकट दिया जाता है जो अपनी जाति में विशेष पकड़ रखते हैं। चुनाव जीतने के बाद पार्टियां भी किसी खास जाति को खुश करने के उद्देश्य से ऐसे जीते हुए उम्मीदवारों को मंत्री बनाती हैं। जातिगत समीकरण को साधने के दृष्टिकोण से पार्टियों को ऐसा करना मजबूरी है। चाहे जीते हुए उम्मीदवारों की योग्यता कुछ भी हो !जातिगत समीकरण साधने के उद्देश्य से सभी पार्टियां कुछ विशेष जातियों को वरीयता देती हैं।
अब देखिए ना! 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन में राजद,जदयू एवं कांग्रेस आदि शामिल थें। दूसरी ओर एन डी ए गठबंधन में भाजपा, लोजपा एवं रालोसपा शामिल थीं। एक रिपोर्ट के मुताबिक 84प्रतिशत अगड़ी जातियों ने भाजपा नीत गठबंधन को वोट दिया। यह आंकड़ा इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह प्रदर्शित करता है कि जदयू को अगड़ी जातियों का वोट तभी मिलता है जब उसके साथ भाजपा का गठबंधन हो।

पिछड़ी जातियों के यादव कुर्मी आदि के 68 प्रतिशत वोट महागठबंधन के खाते में गए। वस्तुतः बिहार के चुनाव में जाति का खेल बहुत मायने रखता है क्या यही सत्य है जिसके चलते विकास का मुद्दा पीछे रह जाता है?

वस्तुतः आसन्न चुनाव में चुनाव के मुद्दे गरीबी, बेरोजगारी, कोरोना वायरस से उत्पन्न समस्याएं, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि होने चाहिएँ। ये मुद्दे जाति की राजनीति के आगे हवा हो जाते हैं। बिहार के लोगों को चाहिए कि जाति की राजनीति से ऊपर उठकर विकास को प्राथमिकता दें !विकास को अहमियत देने से ही बिहार विकास की सीढ़ी चढ़ पाएगा।

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