Front News Today: जिला राय बरेली के एक छोटे से गांव दलीपुर में जन्में दिलीप शुक्ला ने अपने कठिन संघर्षो की बदौलत माया नगरी मुंबई जैसे बड़े शहर में इस आपाधापी व प्रर्तिस्पर्धा भरे युग में सिने जगत में अपने आप को अलग रूप में स्थापित करते हुए एक अलग पहचान बनाई ..
हम बात कर रहे है सुप्रसिद्ध फ़िल्म लेखक दिलीप शुक्ला की.. दिलीप शुक्ला पिछले तीन दशकों से फिल्मों में कहानी, पटकथा और संवाद लिख रहे हैं। आपकी फ़िल्मों ने लोकप्रियता बटोरने के साथ – साथ कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी जुटाए हैं।
लेखन का रुझान आपमें स्कूल के दिनों से ही था.. ये जब छठी क्लास में थे तब उन्होंने स्कूल में मनाए जा रहे स्वतंत्रता दिवस के उत्सव के लिए एक स्पीच खुद ही लिखी और जब उन्होंने उसे प्रस्तुत किया तो उसकी बहुत प्रशंसा हुई। इस प्रशंसा ने दिलीप शुक्ला का मनोबल बढ़ाया। स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई करने के लिए वो लखनऊ आ गए जहां उनके पिता रेलवे में कार्यरत थे। यहां उन्होंने पढ़ाई के साथ – साथ अपनी लेखन की गतिविधियां जारी रखी। महज 15 साल की उम्र में आपने महान उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी मंत्र का नाट्य रूपांतरण किया.. मंत्र को निर्देशित करने के साथ – साथ आपने इसमें अभिनय भी किया। जिसका लखनऊ के मिनी रवींद्रालय में सफल मंचन हुआ इस नाटक की सफलता से आपमें लेखन के प्रति विश्वास और गहरा हुआ और ये विचार भी आया कि लेखन के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा लोगों से जुड़ा जा सकता है। उनकी समझ में आया लेखन अपने विचार, अपनी कल्पना को ठीक से रखने का सबल माध्यम है। इसके बाद आपने सिनेमा से जुड़ने का मन बनाया क्योंकि सिनेमा में आपका विचार एक साथ लाखों, करोड़ो लोग देखते हैं।
करीब 20 साल की अवस्था में आप मुंबई आ गए और फिल्मों में लेखन के लिए संघर्ष शुरू किया। मुंबई में दिलीप शुक्ला ने अपना एक ग्रुप बनाकर थियेटर से शुरूआत की। फिर 6 – 7 सालों के संघर्ष के बाद इनका सपना पूरा हुआ और इन्हें एक बड़ी फ़िल्म घायल लिखने को मिली। घायल में दिलीप शुक्ला को बतौर संवाद लेखक पहचान मिली, घायल के बाद दामिनी और अंदाज अपना अपना ने उनके नाम को और मजबूती दी। लेखन क्षेत्र में दिलीप शुक्ला एक लोकप्रिय नाम बना .. उसके बाद कई सफल और सराहनीय फिल्मों की श्रंखला बनी जिसमें मोहरा, ज़िद्दी, ऐलान जैसी सफल फ़िल्में लिखीं। दिलीप शुक्ला ने बच्चों के विषय पर भी काम किया इनकी लिखी हुई फिल्म गट्टू विश्वस्तर पर सराही गई। उसके बाद दिलीप शुक्ला की कलम ने एक बहुत ही लोकप्रिय चरित्र गढ़ा, जिस चरित्र को सभी लोगों ने सर आंखो पर लिया चुलबुल पाण्डेय। दिलीप शुक्ला की कलम से निकली दबंग.. बतौर लेखक वो दबंग वन, टू और थ्री से जुड़े रहे।
आज की डिजिटल दुनियां और वेब सीरिज पर बात करते हुए शुक्ला ने कहा कि से सेंसर हटने से लिखने की भी आजादी हो गई है। कोई कुछ भी लिख रहा है और दुख की बात ये है दर्शक इसे देख भी रहे हैं। इस वजह से लिखने और बनाने वालों के हौसले बढ़ रहे हैं। जिस दिन दर्शक इसे नकारना शुरू करेंगे, उसी दिन से ये लिखना और बनना बंद हो जाएगा। मेरा ये मानना है अपनी संस्कृति और भाषा का सम्मान करना चाहिए। कहानी और संवाद किस तरह का प्रभाव डाल सकते है। लिखते हुए और बनाते हुए ये विचार भी होना चाहिए। दिलीप शुक्ला का ये कहना है, समय है। बदलता रहता है और वो बदलाव एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री पर भी पड़ता है फिर समय चक्र घूमेगा और सिनेमा और सीरीज में अच्छा लेखन पसंद किया जाएगा। अपनी कहानियों और अपने किरदार के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा वो जो देखते हैं, अनुभव करते हैं, महसूस करते हैं वही वो अपने किरदारों और कहानियों में उतारते हैं। शुक्ला जी ने बताया की स्कूल के दिनों में उन्होंने एक दबंग थानेदार देख लिया था। उसी से प्रभावित होकर उन्होंने चुलबुल पाण्डेय का किरदार गढ़ा जो बहुत प्रसिद्ध हुआ.. सनी देओल द्वारा बोले गए ढाई किलो वाले संवाद पर दिलीप शुक्ला ने इस डायलॉग के पीछे का एक किस्सा बताया। जब फ़िल्म बन रही थी तो हमारे साथ सनी देओल खाना खा रहे थे। जैसे ही उन्होंने रायते का पात्र उठाने के लिए हाथ बढ़ाया। हाथ पर निर्देशक की नजर पड़ी तो वे बोले- सनी के हाथ पर कोई डायलॉग लिखो तब यह डायलॉग “ये ढाई किलो का हाथ है, जब उठाता है तो आदमी उठता नही, उठ जाता है”
लिखा गया।
एक लेखक के रूप में दिलीप शुक्ला आज भी शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं.. बॉलीवुड में संघर्ष कभी खत्म नहीं होता अगर आप थोड़ा सा भी दौड़ में कमजोर हुए तो आप पीछे रह जाएंगे और कोई दूसरा आगे निकल जाएगा। इस दुनियां से जुड़ा हर व्यक्ति पूरे जीवन प्रयास में रहता है, संघर्ष में रहता है। इस फील्ड में किसी भी पोजिशन में बैठा व्यक्ति हमेशा इनसिक्योर रहता है और ये इनसिक्योरिटी ही उससे काम करवाती है।
संघर्ष जीवन और कलाकार दोनो को गतिशील रखता है।

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