आध्यात्मिक क्रांति के तहत्‌ कुदरत का खेल

सतयुग दर्शन ट्रस्ट का वार्षिक रामनवमी यज्ञ महोत्सव, आज भूपानी स्थित सतयुग दर्शन वसुंधरा पर प्रात: ८.०० बजे सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ व रामायण के अखंड पाठ के साथ आरंभ हुआ। आरम्भिक विधि के उपरांत सजनों को सत्संग के दौरान ट्रस्ट के मार्गदर्शक श्री सजन जी ने कहा कि यह सारा जगत विचित्र ईश्वरीय लीला यानि दिव्य क्रीड़ा है। इस क्रीड़ा के अंतर्गत जगत से परे, सर्व शक्ति सम्पन्न, आद्‌-अंत रहित, अकर्त्ता, निर्गुण, शुद्ध, शांत, अनिर्वचनीय चैतन्य परब्रह्म परमात्मा ही, अपनी परम शक्ति कुदरत के सहारे समस्त लोकों का सृजन करते हैं और अंतर्यामी ब्रह्म स्वरूप से, हर वस्तु में प्रविष्ट होकर, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का पालन करने वाले यानि जगत के कर्त्ता-धर्ता व परिचालक सगुण ब्रह्म अथवा परमेश्वर नाम कहाते हैं।

समझने की बात तो यह है कि, हर वस्तु में प्रविष्ट व विभिन्न नामों और रूपों से अलंकृत होने वाले यही चैतन्य आद्‌ पुरुष निरंकार परमेश्वर, जब प्रकृतिस्थ त्रिगुणों यथा सत्व, रज और तम्‌ के क्षोभ द्वारा, माया रूपी अविद्या के वशीभूत हो, मिथ्या देह अभिमान से ग्रस्त हो जाते हैं तो मायाबद्ध जीव या जीवात्मा की संज्ञा से नवाज़े जाते हैं। इस तरह सोऽहम्‌ स्वरूप से एक होते हुए भी वह चैतन्य प्रभु, शरीरों की भिन्नता के कारण, जीवरूप में अनेक विध्‌ हो जाते हैं और भौतिक चेतना की प्रधानता के कारण, सूक्ष्म शरीर को अपना वाहक बना, एक शरीर को छोड़ कर, दूसरे शरीर में जाते-आते रहते हैं। आशय यह है कि ईश्वरीय इस विचित्र लीला के तहत्‌ एक होते हुए भी यह ब्रह्ममय जगत, अनेक विध्‌ नज़र आता है और वह शब्दातीत, त्रिगुणातीत, कालातीत, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, परमेश्वर अपनी शक्ति कुदरत के माध्यम से सब कुछ करते हुए भी अर्थात्‌ सब खेल रचते व खेलते हुए भी, स्वयं उससे निर्लेप यानि अकर्त्ता बने रहते हैं।

उपरोक्त के संदर्भ में आगे कुदरत का आशय स्पष्ट करते हुए श्री सजन जी ने कहा कि कुदरत ईश्वरीय शक्ति यानि सामर्थ्य है। सारे जगत में इसी कुदरत का ही प्रभुत्व यानि इख़्तियार है और इसी के सामर्थ्य से ही प्रभु के आदेशानुसार सारी सृष्टि का खेल चलता है। उन्होंने कहा कि सूक्ष्म, स्थूल आदि अवस्थाओं के द्वारा, कुदरत ने ही इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है। इसीलिए इस जगत में जो कुछ भी रचता है, घटित होता है व परिवर्तित होता है, वह सब इस ईश्वरीय शक्ति कुदरत द्वारा ही होता है तथा इस कुदरत को सामान्य भाषा में प्रकृति भी कहते हैं। प्रकृति अर्थात्‌ परमेश्वर की वह मूल शक्ति जिसने इस अनेक रूपात्मक जगत का विकास किया है तथा जिस का रूप कीड़ी से लेकर हाथी तक व ब्रह्मा से लेकर तृण तक सब चराचर जीवों व दृश्यों में दृष्टिगोचर होता है। इस तरह अनादि, अनंत, नित्य, सर्वव्यापक, अचेतक, त्रिगुणात्मक प्रधान महाशक्ति जो चित्र-विचित्र संसार को रचती है यानि सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों को उत्पन्न करती है, आहार रूप में उनकी पालना करती है, कुदरती ज्ञान रूप में शास्त्र विहित्‌ ब्रह्म विचार प्रदान कर उनका आत्मिक उत्थान करती है तथा विपथगामी होने पर संहार करती है, वह कुदरत या प्रकृति कहलाती है। सारत: प्रकृति ही इस भौतिक जगत का मूल कारण है और सृष्टि की विविधता यानि अनेकता इस कुदरत/प्रकृति की आश्चर्यजनक देन है।

श्री सजन जी ने सभी उपस्थित सजनों को सम्बोधित करते हुए आगे कहा कि जो कुदरत इंसान की शारीरिक बनत बनाती है व उसमें मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ व उनके विषयों का व्यवधान करती है, वही उसको शारीरिक-मानसिक व आत्मिक रूप से निरोगी व तंदुरुस्त रखने हेतु कुदरती आहार, कुदरती ज्ञान व कुदरती विचारों के रूप में विवेकशक्ति भी प्रदान करती है ताकि मानव इसके बलबूते पर सत्‌-असत्‌, जड़-चेतन, सही-गलत, उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म की भली विध्‌ परख कर, यथार्थ का ग्रहण कर सके और ए विध्‌ अपनी जिह्वा को स्वतन्त्र, संकल्प को स्वच्छ, दृष्टि को कंचन, वृत्ति-स्मृति, बुद्धि व भाव स्वभाव रूपी ताने बाने को निर्मल रखते हुए, ख़्याल ध्यान वल व ध्यान प्रकाश वल जोड़े रख आत्मदर्शन का लाभ प्राप्त कर सके। अत: कुदरत प्रदत्त विशेष विवेकशक्ति प्रदान के बलबूते पर, अपने अस्तित्व के मूलाधार को समझो यानि इस सत्य का बोध करो कि हम नश्वर यानि जड़ शरीर नहीं अपितु चेतन आत्मा/परमात्मा हैं। चेतन में कभी भी किसी कारण से भी कोई क्षोभ या क्रिया या परिवर्तन नहीं होता इसलिए वह सदा निर्विकारी व निर्लिप्त बना रहता है अर्थात्‌ किसी भी प्राकृत पदार्थ व क्रिया से अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ता। अतैव इस तथ्य के दृष्टिगत विचारपूर्वक प्रकृतिजन्य शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ व जगतीय दृश्यों तथा पदार्थों के प्रति रागात्मक आसक्ति का त्याग कर, ‘हौं-मैं‘ के भाव से ऊपर उठ जाएं यानि ‘मैं हूँ‘ या ‘मैं करता हूँ‘, इस कर्त्तापन के अभिमान से मुक्त हो, अखण्ड शाश्वत चेतन सत्ता के साथ अपना अटल सम्बन्ध कायम कर, उसी में अपने मन-चित्त को लीन कर लो और एक ख़्याल, एक दृष्टि, एक दृष्टि एक दर्शन में स्थित हो विश्राम को पाओ।

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